धुंध से उठती धुन' पढ़ते हुए

Posted on 4/5/2019

कुछ सम्बन्धों से हम बाहर नहीं निकल सकते - कोशिश करें, तो निकलने की कोशिश में मांस के लोथड़े बाहर आ जाएँगे, ख़ून में टिपटिपाते हुए।


जुदाई का हर निर्णय सम्पूर्ण और अंतिम होना चाहिए; पीछे छोड़े हुए सब स्मृतिचिह्नों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्ट कर देना चाहिए, किसी भी तरह की वापसी को असम्भव बनाने के लिए।


यह ख़याल ही कितनी सांत्वना देता है कि हर दिन, वह चाहे कितना लम्बा, असह्य क्यों न हो, उसका अंत शाम में होगा, एक शीतल झुटपुटे में। मैं कमरे से बाहर आऊँगा, स्मृतियों के छत से बाहर, गर्मी के खुले आकाश में, तारों के नीचे, बिना किसी आशा और प्रतीक्षा के। हर पीड़ायुक्त निर्णय को क्रियान्वित करने के लिए हमें उसे दैनिक जीवन का स्वाभाविक अंग बनाना होगा। तभी हम उसे भूल सकते हैं, जिसे हमने खो दिया है।


एक ज़िंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में सम्पूर्ण है। उसके आगे का समय उसके साथ ही मार जाता है जैसे उम्र की रेखा - वह चाहे कितनी लम्बी क्यों न हो - मृत हथेली पर मुरझाने लगती है। क्या रिश्तों के साथ भी ऐसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं? हम विगत के बारे में सोचते हुए पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्मृतियाँ उसे नहीं बचा सकतीं, जो बीत गया है। मरे हुए रिश्ते पर वे उसी तरह रेंगने लगती हैं जैसे शव पर च्यूँटियाँ। दो चरम बिंदुओं के बीच झूलता हुआ आदमी। क्या उन्हें (बिंदुओं को) नाम दिया जा सकता है? दोनों के बीच जो है, वह सत्य नहीं पीड़ा है। वह एक अर्धसत्य और दूसरे अर्धसत्य के बीच पेंडुलम की तरह डोलता है, उन्हें सम्पूर्ण पाने के लिए, लेकिन अपनी गति में - जो उसकी आदिम अवस्था है - हमेशा अपूर्ण रहता है।


— निर्मल वर्मा