तुमुल कोलाहल कलह में...

Post date: Jan 8, 2011 3:38:31 AM

I was upset today... but In evening I had a long discussed with someone. That discussion changed my mood completely. I didn't say thanks... but somehow I ended the discussion with the first line of this poem.

तुमुल कोलाहल कलह में

मैं हृदय की बात रे मन !

विकल हो कर नित्य चंचल

खोजती जब नींद के पल

चेतना थक-सी रही तब

मैं मलय की वात रे मन !

चिर विषाद विलीन मन की

इस व्यथा के तिमिर वन की

मैं उषा-सी ज्योति-रेखा

कुसुम विकसित प्रात रे मन !

पवन की प्राचीर में रुक

जला जीवन जी रहा झुक

इस झुलसते विश्व दिन की

मैं कुसुम ऋतु रात रे मन !

चिर निराशा नीरधर से

प्रतिच्छायित अश्रु सर में

मधुप मुखर मरंद मुकुलित

मैं सजल जल जात रे मन !

-जयशंकर प्रसाद

(तुमुल : प्रचंड, मलय की वात: मलय पर्वत की ओर से आने वाली अच्छी हवा., तिमिर: अँधेरा, नीरधर: बादल, मधुप: भौंरा, मरंद: मकरंद, मुकुलित: फुल, कली/मंजरी से युक्त)

Listen it here in voice of Asha Bhosle