प्रेम, प्रीति, मैत्री
Post date: Jan 5, 2011 1:40:06 AM
सच तो यही है कि इस संसार में हर कोई केवल अपने लिए ही जिया करता है. मनुष्य सुख के लिए अपने निकट के लोगों का सहारा ठीक उसी तरह खोजते हैं, जैसे वृक्षलताओं की जड़ें पास की आर्द्रता की और मुड जाती हैं. इसी झुकाव को दुनिया कभी प्रेम कहती है, कभी प्रीति तो कभी मैत्री. लेकिन वास्तव में वह होता है आत्मप्रेम ही. एक तरफ की आर्द्रता नष्ट होते ही पेंड-पौधे सुख नहीं जाते हैं, उनकी जड़ें किसी और आर्द्रता की खोज में दूसरी और मुड जाती है - वह आर्द्रता नजदीक हो या दूर - और उसे खोजकर वे फिर लहलहाने लगते है.
... इस द्वंद्वपूर्ण जीवन में दार्शनिक सिद्धांत ही मानव का अंतिम सहारा है. - विष्णु खांडेकर (ययाति में)