मालूम है, आज मैं आत्महत्या करके लौटा हूँ?

Post date: Jun 17, 2014 12:10:21 AM

आज राजेंद्र यादव की कहानी "अभिमन्यु की आत्महत्या" पढ़ने को मिली। कहानी के कुछ अंश अक्षरशः (बोले तो कॉपी पेस्ट):

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तुम्हें पता है, आज मेरी वर्षगाँठ है और आज मैं आत्महत्या करने गया था? मालूम है, आज मैं आत्महत्या करके लौटा हूँ?

अब मेरे पास शायद कोई 'आत्म' नहीं बचा, जिसकी हत्या हो जाने का भय हो। चलो, भविष्य के लिए छुट्टी मिली!

किसी ने कहा था कि उस जीवन देने वाले भगवान को कोई हक नहीं है कि हमें तरह-तरह की मानसिक यातनाओं से गुजरता देख-देखकर बैठा-बैठा मुस्कराए, हमारी मजबूरियों पर हँसे। मैं अपने आपसे लड़ता रहूँ, छटपटाता रहूँ, जैसे पानी में पड़ी चींटी छटपटाती है, और किनारे पर खड़े शैतान बच्चे की तरह मेरी चेष्टाओं पर 'वह' किलकारियाँ मारता रहे! नहीं, मैं उसे यह क्रूर आनंद नहीं दे पाऊँगा और उसका जीवन उसे लौटा दूँगा। मुझे इन निरर्थक परिस्थितियों के चक्रव्यूह में डालकर तू खिलवाड़ नहीं कर पाएगा कि हल तो मेरी मुट्ठी में बंद है ही। सही है, कि माँ के पेट में ही मैंने सुन लिया था कि चक्रव्यूह तोड़ने का रास्ता क्या है, और निकलने का तरीका मैं नहीं जानता था.... लेकिन निकल कर ही क्या होगा? किस शिव का धनुष मेरे बिना अनटूटा पड़ा है? किस अपर्णा सती की वरमालाएँ मेरे बिना सूख-सूखकर बिखरी जा रही हैं? किस एवरेस्ट की चोटियाँ मेरे बिना अछूती बिलख रही हैं? जब तूने मुझे जीवन दिया है तो 'अहं' भी दिया है, 'मैं हूँ' का बोध भी दिया है, और मेरे उस 'मैं' को हक है कि वह किसी भी चक्रव्यूह को तोड़ कर घुसने और निकलने से इंकार कर दे..... और इस तरह तेरे इस बर्बर मनोरंजन की शुरूआत ही न होने दे.....

और इसीलिए मैं आत्महत्या करने गया था, सुना?

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… और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा तिरस्कार हुआ। ….और तुम चिलचिलाते सीमाहीन रेगिस्तान में अपने को अनाथ और असहाय बच्चे-सा प्यासा और अकेला पाओगे.... तुम्हारे सिर पर छाया का सुरमई बादल सरककर आगे बढ़ गया होगा और तब तुम्हें लगेगा कि बादल की उस श्यामल छाया ने तुम्हें ऐसी जगह ला छोड़ा है जहाँ से लौटने का रास्ता तुम्हें खुद नहीं मालूम.... जहाँ तुममें न आगे बढ़ने की हिम्मत है, न पीछे लौटने की ताकत। तब यह छलावा और स्वप्न-भंग खुद मंत्र-टूटे साँप-सा पलटकर तुम्हारी ही एड़ी में अपने दाँत गड़ा देगा और नस-नस से लपकती हुई नीली लहरों के विष बुझे तीर तुम्हारे चेतना के रथ को छलनी कर डालेंगे और तुम्हारे रथ के टूटे पहिए तुम्हारी ढाल का काम भी नहीं दे पाएंगे.... कोई भीम तब तुम्हारी रक्षा को नहीं आएगा।

क्योंकि इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता तुम्हें किसी अर्जुन ने नहीं बताया- इसीलिए मुझे आत्महत्या कर लेनी पड़ी और फिर मैं लौट आया- अपने लिए नहीं, परीक्षित के लिए, ताकि वह हर साँस से मेरी इस हत्या का बदला ले सके, हर तक्षक को यज्ञ की सुगंधित रोशनी तक खींच लाए।

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….मैं तो चाहता था कोई मरघट-जैसी शान्त जगह, जहां थोड़ी देर यों ही चुपचाप बैठा जा सके। यह दिमाग में भरा सीसे-सा भारी बोझ कुछ तो हल्का हो, यह सांस-सांस में ररकती सुनाई की नोक-सा दर्द कुछ तो थमे। लहरें सिर फटकर-फटककर रो रही थीं और पानी कराह उठाता था। घायल चील-सी हवा इस क्षितिज तक चीखती फिरती थीं आज सागर-मंथन ज़ोरों पर था। चारों ओर भीषण गरजते अंधेरे की घाटियों में दैत्यवाहिनी की सफें की सफें मार्च करती निकल जाती थीं। दूर, बहुत दूर, बस दो चार बत्तियां कभी-कभी लहरों के नीचे होते ही झिलमिला उठती थीं। … इस चिंघाड़ते एकान्त में, मान लो, मान लो, एक लहर जरा-सी करवट बदलकर झपट पड़े तो...? किसे पता चलेगा कि कल यहाँ, इस ढोंके की आड़ में, कोई अपना बोझ सागर को सौंपने आया था, एक पिसा हुआ भुनगा। मगर आखिर मैं जियूँ ही क्यों? किसके लिए? इस जिंदगी ने मुझे क्या दिया? वहीं अनथक संघर्ष स्वप्न भंग, विश्वासघात और जलालत। सब मिलाकर आपस में गुत्थम-गुत्था करते दुहरे-तिहरे व्यक्तित्व, एक वह जो मैं बनना चाहता था, एक वह जो मुझे बनना पड़ता था...

और उस समय मन में आया था कि, क्यों नहीं कोई लहर आगे बढ़कर मुझे पीस डालती? थोड़ी देर और बैठूँगा, अगर इस ज्वार में आए सागर की लहर जब भी आगे नहीं आई तो मैं खुद उसके पास जाऊँगा। और अपने को उसे सौंप दूँगा..... कोई आवेश नहीं, कोई उत्तेजना नहीं, स्थिर और दृढ़... खूब सोच-विचार के बाद….

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…मुझे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता कोई नहीं बताता? अलीबाबा के भाई की तरह मैंने भीतर जाने के सारे रास्ते पा लिए हैं लेकिन उस 'सिम-सिम खुला जा' मंत्र को मैं भूल गया हूँ जिससे बाहर निकलने का रास्ता खुलता है। लेकिन मैं उस चक्रव्यूह में क्यों घुसा? कौन-सी पुकार थी जो उस नौजवान को अनजान देश की शहजादी के महलों तक ले आई थी?

दूर सतखण्डे की हाथीदांती खिड़की से झाँकती शहजादी ने इशारे से बुलाया और नौजवान न जाने कितने गलियारे और बारहदरियाँ लाँघता शाहजादी के महलों में जा पहुँचा। सारे दरवाजे खुद-बखुद खुलते गए। आगे झुके हुए ख्वाजासराओं के बिछाए ईरानी कालीन और किवाड़ों के पीछे छिपी कनीजों के हाथ उसे हाथों-हाथ लिये चले गए; और नौजवान शाहजादी के सामने था....ठगा और मंत्र-मुग्ध।

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माँ सुभद्रा, तुम चक्रव्यूह की बात सुनते सुनते क्यों सो गयी थी ?

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दूर जहाज़ों की झिलमिलाती बत्तियों में सुभद्रा भाभी का चेहरा उभर आया था. सुभद्रा भाभी मां थी- वह कैलाश के लिए ज़हर खाकर मर सकी थी; लेकिन बच्चों के लिए मौत के चंगुल से छूटकर भी आ सकती थीं। मैंने तो अपने ‘बच्चों’ को नौ महीने नहीं, नौ-नौ वर्ष दिमाग में रक्खा है, न जाने कितना खून और नींद देकर पाला है और उन्हें छोड़कर यहां चला आता हूं मरने?

और मैं झटके से उठ बैठा, ठीक जैसे सुभद्रा भाभी उठी थीं। हाथ के कंकड को ज़ोर से घुमाकर लहरों पर फेंक दिया और दूर प्रतीक्षा करते जहाज़ की ओर गुर्राती लहरों से बोला, “नहीं, दोस्त सागर, अभी नहीं...अभी नहीं, अंधेरे की गरजती लहरों ! भाई जहाज़, फिर कभी आना। आज तो मैं लौट रहा हूं….।”

तब मैंने देखा कि लहरों की फुहार में मेरे कपड़े सराबोर हो गए थे।

फिर मैं लौट आया। ऊबड़-खाबड पत्थरों के ढोकों पर कदम रखता हुआ। ... खंदकों का पार करता हुआ-जैसे शिव लौट आए थे सती की लाश को कन्धे पर लादकर। वह मेरी अपनी लाश थी…..

सुना, आज अपनी वर्षगांठ पर मैं ‘आत्म-हत्या’ करके लौटा हूं।

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