मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूं ही...

Post date: Oct 7, 2014 8:56:30 PM

अच्छे गाने का मतलब होता है 'रिप्ले' बटन पर अत्याचार !

मैं गाने बहुत कम सुनता हूँ। रोड ट्रिप के अलावा पिछले दो-तीन सालों में मैंने सिर्फ वही गाने सुने होंगे जो किसी ने सुनने को कहा हो या भेजा हो। ...जब हैदर का 'गुलों में रंग भरे' किसी ने भेज दिया तो... खूब सुना, अनगिनत बार लूप में।

यूट्यूब पर मेहँदी हसन से लेकर अरिजित सिंह तक कई वर्जन पड़े हैं फैज की इस गजल के -

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले

चले भी आओ कि गुलशन का करोबार चले

(बाद-ए-नौबहार = नयी बहार की हवा, या उसके बाद नयी बहार)

क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो

कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

(क़फ़स = जेल, सबा = मंद हवा, बहर-ए-ख़ुदा = खुदा के लिए)

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़

कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले

(कुंज-ए-लब= होठ का कोना, शब= रात, काकुल= लटें, मुश्क-ए-बार= कस्तुरी की खुशुबू)

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही

तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले

(ग़मगुसार= हमदर्द)

जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ

हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले

(शब-ए-हिज्राँ = जुदाई की रात, आक़बत = भविष्य, अगला जन्म)

मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

(कू-ए-यार=यार की गली, सू-ए-दार= फांसी/सूली)

और फिर कहीं से कभी-कभी की लत लगी तो दो दिन से ये भी खूब सुना... फिर साहिर लुधियानवी की असली रचना भी ढूंढ कर पढ़ी गयी -

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में

गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी

ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है

तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी

(शादाब = हरा-भरा/खूबसूरत, तीरगी= अंधेरा, ज़ीस्त= जिंदगी, शुआओं= रोशनी)

अजब न था के मैं बेगाना-ए-अलम रह कर

तेरे जमाल की रानाईयों में खो रहता

तेरा गुदाज़ बदन तेरी नीमबाज़ आँखें

इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता

(बेगाना-ए-अलम= दुनिया से अजनबी, जमाल= खूबसूरती, रानाईयों= अदाओं, नीमबाज़= अधखुली, महव= डूबा)

पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की

तेरे लबों से हलावट के घूँट पी लेता

हयात चीखती फिरती बरहना-सर, और मैं

घनेरी ज़ुल्फ़ों के साये में छुप के जी लेता

(तल्ख़ियाँ= कड़वाहटे, हलावट= मिठास, हयात= जिंदगी, बरहना= नंगे)

मगर ये हो न सका और अब ये आलम है

के तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं

गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे

इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं

ज़माने भर के दुखों को लगा चुका हूँ गले

गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रह्गुज़ारों से

महीब साये मेरी सम्त बढ़ते आते हैं

हयात-ओ-मौत के पुरहौल ख़ारज़ारों से

(महीब= खौफनाक, सम्त= ओर, हयात-ओ-मौत= जिंदगी और मौत, पुरहौल= डरावने, ख़ारज़ारों= कांटो से भरी)

न कोई जादह-ए-मंज़िल न रौशनी का सुराग़

भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी

इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर

मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स मगर यूं ही

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

(जादह-ए-मंज़िल= मंजिल का रास्ता, ख़लाओं= अंधेरों)