कलगी बाजरे की (एक अंश)
Post date: Jan 6, 2011 1:39:40 AM
अगर मैं तुमको ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-नहाई कुँई.
टटकी कली चम्पे की
वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा ह्रदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है.
बल्कि केवल यही :
ये उपमान मैले हो गए हैं.
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच ! - अज्ञेय