...घर से लौटकर
Post date: Oct 13, 2011 12:29:16 PM
कई बार आप कुछ नहीं बोल पाते। आपकी आँखों के कोने में दो बुँदे टपकने को तड़प कर रह जाती हैं। दिल जैसी कोई चीज आपके छाती के अंदर ही अंदर उबल कर रह जाती है। मन में एक टीस उठती है... एक कसक... खुल कर चिल्ला लेने का सा मन होता है... लेकिन आपको पता होता है कि आपके आँखों के कोने में छुपी दो बूंद अगर टपक गयी तो कहीं और सैलाब पैदा कर सकती है। आप इस मनोस्थिति को दबा उसके ऊपर एक हल्की मुस्कान की परत लपेटकर लाकर आगे बढ़ जाते हैं।... दुबारा पीछे मुड़कर देखने में डर लगता है। आपका दिमाग आपको समझा नहीं पाता कि आप क्यों मन में ऐसी टीस लेकर जी रहे हैं। फिर धीरे-धीरे दिमाग आपको समझा लेता है। सब कुछ नहीं... कुछ बातें तो वो कभी नहीं समझा सकता।
ये घटना बार-बार होती है...
उन बूंदों में टपक जाने की ललक पहले से अधिक होती जाती है। पर जिंदगी हम यूं ही जीए जाते हैं... क्यों? किस लिए?
... उस मृग मरीचिका के पीछे भागते हुए जिसकी महत्ता आँखों के कोने में दो बूंद पैदा करने वालों के सामने कुछ भी तो नहीं ! कुछ छोटी मुलाकातें टीस को और बढ़ा देती हैं। वैसे ही जैसे धूप में जल जाने के बाद चेहरे को किसी चीज की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है तो वो है पानी। पर पानी का एक छींटा जले चेहरे पर छन्न से जलन पैदा कर जाता है...
मैं कल घर से लौटा हूँ... अभी भारत में ही हूँ पर अभी से ऐसा लग रहा है जैसे वापस न्यूयॉर्क पहुँच गया... :(