बुद्ध के समय...

Post date: May 24, 2013 9:18:36 PM

बुद्ध के समय भारतवर्ष में श्रमणों की कोई ६३ संस्थाएं थी। जिनमें छः प्रमुख इस प्रकार थी। -

अक्रियावाद (पूरण कश्यप): मनुष्य जो कुछ भी करे, वह पाप का भागी नहीं होता है। तीक्ष्ण धार के चक्र से भी अगर कोई इस संसार के सभी प्राणियों को मारकर ढेर लगा दे, तो भी उसे पाप न लगेगा। गंगा नदी के उत्तर किनारे पर जाकर कोई भी दान दे या दिलवाए, यज्ञ करे या करवाए, तो भी कुछ पुण्य नहीं होना का. दान, धर्म, संयम, सत्य-भाषण, इन सबसे पुण्य की प्राप्ति नहीं होती।

देववाद (मंक्खिल गोसाल): प्राणी के पवित्र या अपवित्र होने में न कुछ हेतु है, न कारण। बिना हेतु और कारण के ही प्राणी पवित्र और अपवित्र होते हैं। बल, वीर्य-पराक्रम और पुरुषार्थ, ये कुछ भी नहीं हैं। सब प्राणी बलहीन और निवीर्य हैं। नियति, संगति और स्वाभाव से वे चालित होते हैं। अस्सी लाख महाकल्पों के फेरे में पड़े बिना किसी भी दुःख का नाश नहीं होता .

उच्छेवाद/जड़वाद (अजित केस-कम्बल): चार भूतो से मिलकर मनुष्य बना है। मरने पर ये चारो (क्षिति, जल, पावक, वायु) तत्व अपने अपने स्थान में समा जाते हैं। मृत्यु के बाद कुछ भी अवशेष नहीं रहता। पंडित और मुर्ख दोनों का, मरने के बाद उच्छेद हो जाता है।

अकृततावाद (पकुध कात्यायन): जो तेज शस्त्रों से दुसरे का सर काटता है, वह खून नहीं करता, सिर्फ उसका शस्त्र उन तत्वो के अवकाश (रिक्त स्थान) में घुसता है, जिन तत्वो से इंसान निर्मित है।

निगंठ नाथपुत्त : ऊपर लिखे चारो मतों का प्रतिपादन करता था।

अनिश्चिततावाद (संजय बेलट्ठी पुत्त): परलोक है या नहीं, यह मैं नहीं समझता, परलोक है, यह भी नहीं, परलोक नहीं है, यह भी नहीं। अच्छे या बुरे कर्मों का फल मिलता है, यह मैं नहीं मानता, नहीं मिलता है, यह भी नहीं मानता। तथागत मृत्यु के बाद रहता है या नहीं रहता, यह मैं नहीं समझता, वह रहता है, यह भी नहीं, नहीं रहता है, यह भी नहीं।

- (रामधारी सिंह 'दिनकर' लिखित "संस्कृति के चार अध्याय"से)