बहुत कुछ और भी है जहाँ में
Post date: Jun 24, 2014 1:31:26 AM
जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है,
मगर वो आज भी बरहम (ख़फा) नहीं है.
बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है.
बहुत कुछ और भी है जहाँ में,
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है.
तकाज़े क्यों करूँ पैहम (बार-बार) न साक़ी,
किसे याँ फ़िक्रे-बेशोकम (थोड़ा-बहुत) नहीं हैं.
उधर मश्कूक (अविश्वसनीय/ज़बर्दस्त) है मेरी सदाक़त (सच्चाई),
इधर भी बदगुमानी कम नहीं है.
मेरी बर्बादियों का हमनशीनों,
तुम्हें क्या, ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है.
अभी बज़्म-ए-तरब (ख़ुशी की महफ़िल) से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुरनम (आंसू भरी) नहीं है.
'मजाज़' एक बादाकश (शराबी) तो है यक़ीनन,
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है. - मजाज़