उत्तररामचरित में प्रेम

भवभूति ने प्रेम तत्त्व को राम के मुख से कुछ यूँ कहलाया है -


व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोSपि हेतुर्न खलु बहिरुपाधिन्प्रीतयः संश्रयन्ते।

विकसति हि पतंगस्योदये पुण्डरीक द्रवति च हिमरश्मावुद्गते चन्द्रकान्तः ।।


अर्थात कोई अज्ञात आन्तरिक कारण ही पदार्थों को परस्पर निकट लाता है। प्रेम निश्चय ही बाहरी हेतुओं का आश्रय या अपेक्षा नहीं रखता। जैसे कमल सूर्य के ही उदित होने पर खिल जाता है, और चन्द्रकान्त मणि चन्द्रमा के ही उदित होने पर द्रवित हो जाता है। भवभूति प्रेम को बाह्य कारणों पर आश्रित नहीं मानते। प्रेम और बाह्य कारण दोनों विपरीत बातें हैं। प्रेम अकारण और स्वप्रेरित होता है। अनिर्वाच्य। बाहरी ना कारण ना अपेक्षा।

गुरुत्वाकर्षण की तरह जिसका रहस्य केवल हृदय जानता है। मन। वैसे ही जैसे तुलसीदास का - तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एक मनु मोरा।। सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।

बाह्य कारणों पर आश्रित प्रेम स्थायी तो क्या हो ही नहीं हो सकता। वैसा भी कुछ होता होगा पर उसे प्रेम नहीं कहा जा सकता।